Friday 1 July 2011

जातक ग्रन्थों में वर्णित महात्माबुद्ध कालीन भारत में विनिमय के साधन एवं मुद्रायें

श्रीमती बीना अग्रवाल
रीडर प्राचीन इतिहास
इलाहाबाद डिग्री कालेज
इलाहाबाद

सभ्यता के विकास की प्रारम्भिक अवस्था में मनुष्य की आवश्यकतायें सीमित थी जिससे वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वतः निर्मित वस्तुओं से कर लेता था। परन्तु सभ्यता के विकास के साथ-साथ मनुष्य की आवश्यकताओं में धीरे-धीरे वृद्धि होने लगी जिसके कारण अब उसके लिए स्वतः निर्मित वस्तुओं से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकना सम्भव नहीं रह गया अतः वह अपने द्वारा उत्पादित वस्तुओं को दूसरे को देकर उससे अपनी आवश्यकता की वस्तुएॅं प्राप्त करने लगा। यह वस्तु-विनिमय का आरम्भिक स्वरूप था। कालान्तर में विनिमय के क्षेत्र मेें लगातार वृद्धि होते रहने से वस्तु विनियम में असुविधा अनुभव की जाने लगी जिसने विनिमय की नूतन-विधि क्रय-विक्रय को प्रेरित किया जो मुद्रा द्वारा सम्पन्न होती थी। अतः विनिमय के साधन और उसका धातु मुद्रा द्वारा प्रतिष्ठापन सामाजिक विकास की आवश्यकता पर निर्भर करता है। (1)
प्रारम्भ में विनिमय के लिए मुद्रा या सिक्कों केा अभाव था। केवल एक वस्तु के बदले में दूसरी वस्तु और कुछ प्रमुख वस्तुओं जैसे गाय, कपड़ा और फसलों के बदले में आवश्यक वस्तुएॅं प्राप्त करने की प्रथा सर्वाधिक लोकप्रिय थी। (2) लेकिन कोई भी मनुष्य कुछ ही वस्तुओं का उत्पादन कर सकता था तथा अपनी शेष जरूरतों की पूर्ति के लिए उसे दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता था इसीलिए वह अपने द्वारा उत्पादित वस्तुओं को दूसरों को देकर उनसे अपनी आवश्यकताओं की वस्तुएॅं प्राप्त करने लगा। (3) परन्तु इस तरह की वस्तुओं के आदान-प्रदान की प्रथा केवल प्राचीन अर्थव्यवस्था में होती थी। अर्थतंत्र केे विकसित होने के साथ प्रत्येक व्यक्ति अनेक उत्पादन पर निर्भर होने लगा और प्रत्येक उत्पादक किसी एक सीमित बाजार के लिए वस्तु-उत्पादन न करके सम्पूर्ण देश और विदेशों के लिए वस्तुएॅं उत्पादित करते थे और ऐसी अर्थव्यवस्था में वस्तु-विनिमय कठिन हो जाता था। वस्तु-विनिमय की एक अन्य महत्वपूर्ण कठिनाई यह थी कि इस प्रथा में उधार लेने-देन सम्भव नहीं था तथा मूल्य संचरा करने में असुविधा होती है। इन्हीं कठिनाइयों के कारण धीरे-धीरे वस्तु-विनिमय प्रथा लुप्त होती गई और इसके समाधान के लिए किसी ऐसी वस्तु का चयन किया जाना था जिससे विनिमय कार्य सरलता से हो और उत्पादक-गण इसी माध्यम वस्तु के द्वारा अपनी वस्तु का विनिमय कर सके। इसी के ‘क्रय-विक्रय’ प्रणाली कहते हैं। इस प्रथा के द्वारा एक वस्तु का विनिमय दूसरी वस्तु से प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष अन्य वस्तु से सम्पन्न होता है और ये ही अन्य वस्तु जो विनिमय के माध्यम का कार्य करती है उसे ‘द्रव्य’ या ‘मुद्रा’ कहते हैं। मुद्रा ने अपने गुण जैसे-स्थायित्व (टाकाऊपन) सुग्राहयता, आसान हस्तान्तरण, आसान विभाजन (विभाजन शीलता) केे कारण धातु-मुद्रा का रूप धारण कर लिया और धीरे-धीरे उस युग की आर्थिक स्थिति के अनुसार स्वर्ण, रजत, ताम्र और लौह इत्यादि धातुओं के टिकाऊपन (स्थिरता) समानता, विभाजशीलता इत्यादि ऐसे गुण विद्यमान थे जो वस्तु-विनिमय प्रणाली की समस्या का विकल्प प्रदान करते हैं। (4)
इस प्रकार विनिमय के माध्यम से रूप में मुद्रा का अविष्कार आर्थिक विकास के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है। विद्वानों मेें इस बात में मतभेद है कि प्राचीन भारत में मुद्रा का प्रचलन कब प्रारम्भ हुआ। विल्सन, प्रिसेप, ऐलन, एवं केनेडी जैसे प्रसिद्ध विद्वान प्राचीनप भारत में मुद्रा के प्रचलन को ‘विदेशी’ प्रभाव का परिणाम मानते हैं जबकि रैप्सन, थामस, कनिघम जैसे इतिहासकार इस विदेशी प्रभाव से मुक्त पूर्णतः देशी मानते हैं। वास्तव में जो विद्वान भारत में मुद्रा का प्रचलन विदेशी प्रभाव का परिणाम बताते हैं उनके मत का आधार यह है कि भारत में मुद्रा का ज्ञान-सिकन्दर के आक्रमण के पश्चात् हुआ जो सही नहीं प्रतीत होता। क्योंकि भारत मेें सिकन्दर के आक्रमण से ही धातु-पिण्ड के अतिरिक्त आहत सिक्के (पंचमार्क सिक्के) प्रयोग मेें आते थे। (5)
जहाॅं तक भारत में सैन्घव सभ्यता में विनिमय हेतु निश्चित ही मुद्रा-प्रणाली अस्तित्व में नहीं थी। डा0 अनन्त शिव अल्टेकर (6) के अनुसार सैन्घव सभ्यता से सम्बन्धित स्थलों से उत्खनन से प्राप्त वस्तुओं में अनेक पत्थर के बाट प्राप्त हुए तथा बहुत से धातु के ऐसे टुकड़े प्राप्त हुए हैं जिन्हें सिक्के कहा जा सकता है परन्तु इन धात्विक टुकड़ो पर कोई चिन्ह अथवा लेख अंकित नहीं है और न ही ये किसी मान्य तौल पर आधारित थे अतः यह कहा जा सकता है कि सैन्घव सभ्यता में सिक्के विकसित हो रहे थे और वैदिक युग में विनिमय के लिए सिक्को का प्रश्न है इस युग अदला-बदली (आन्तरिक विनिमय) की प्रणाली का प्रचुर प्रचलन था। इस युग में आर्थिक गठन में विनिमय प्रक्रिया के दो ही माध्यम थे- (1) वस्तु (2) धातुएॅं। जिसमें वस्तु का प्रयोग आदान-प्रदान में अधिक होता था। एस0के0 चतुर्वेदी (7) के अनुसार वैदिक-काल में विनिमय के लिए गैर घात्विक प्रणाली प्रचलन में थी ‘ऋग्वेद’ में एक दृष्टान्त आता है- ‘कि इन्द्र की एक प्रतिमा का मूल्य दस गायों तक हो सकता है- ‘ऊॅं क इयं दशामिर्ममेन्द्र क्रीणीत धेनुमिः।’ (8) यहाॅं गाय बिना धातु की मुद्रा स्वरूप है। लेकिन वैदिक काल में निष्क, शतमान, रिण्य, सुवर्ण का उल्लेख मिलता है परन्तु इनका स्वरूप क्या था और अभिप्राय क्या था यह निश्चित रूप से कहना कठिन है क्योंकि ऋग्वेद में इनका उल्लेख व्यापारिक लेन-देन के संदर्भ मेें नहीं आता। (9) सम्भवतः वैदिक काल में ‘निष्क’ और हिरण्य को एक निश्चित मुद्रा के रूप में मान्यता नहीं प्राप्त थी किन्तु आर्थिक जीवन में इसका कुछ उपयोग अवश्य था लेकिन परवर्ती साहित्य में ‘निष्क’ का प्रयोग मुद्रा के रूप में होता है। महाभारत में निष्क एक मुद्रा के रूप में वर्णित है। (10) मनुस्मृति में भी निष्क का वजन चार सुवर्ण बताया है। (11)
महात्मा बुद्ध के समय में अत्यन्त प्राचीन काल से चली वस्तु विनिमय प्रणाली थोड़ी बहुत मात्रा में प्रचलित थी ऐसा जातक ग्रन्थों के अध्ययन से पता चलता है। चूॅंकि बौद्ध भिक्षु अर्थ संग्रह और उसक स्पर्श नहीं करते थे। विनिमय कते इस साधन को ही वे ज्यादातर अपनाते थे। जातकों के काल तक चावल का एक परिणाम वस्तुओं के विनिमय के रूप मेें प्रचलित था। (12) किन्तु वृद्धकाल में सिक्को के प्रचलन का पक्का प्रमाण मिलता है और कई अवसरों पर ऐसा प्रतीत होता है कि सिक्कों के रूप में अनेक वस्तुओं के मूल्य निश्चित हुआ करते थे। (13) जातको के अध्ययन से भी यह सिद्ध होता है कि उस समय सिक्को का प्रचलन हो चुका था। इन सिक्कों केा निक्ख (निष्क) कहापण (कर्षापण) सुवण्ण (सुवर्ण) (14) कंस, पाद, मास-मासक (15) और काकणिक (16) कहा जाता था। इसमेें निष्क एक सोने का सिक्का था जो प्रारम्भ मेें एक आभूषण के रूप में भी प्रयुक्त होता था। सुवर्ण जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि यह सोने का सिक्का था सम्भवतः इसे ही हिरण्य भी कहते हैं। यद्यपि प्रसेनजित विम्बसार और आजातशत्रु के समय ढप्पेदार सिक्के प्राप्त होते हैं परन्तु अभी तक सुत्तपिटक में चर्चित इन राजाओं के सोने के सिक्के का ज्ञान नहीं है परन्तु पाणिनी ने (550ई0पू0) कर्षापण और शतमान जैसे सोने के सिक्के का उल्लेख किया है। (17) इन सिक्कों का पारस्परिक मूल्यमान क्या था यह निश्चित करना कठिन है। विनयपिटक में वर्णन मिलता है कि अजातशत्रु और विम्बसार के समय राजग्रह मेें 5 पाॅंचमासे का एक पद होता था और 5 सुवर्ण के बराबर एक निष्क होता था। (18)
जातक ग्रन्थो के अनुसार वृद्ध के समय का सर्वाधिक प्रचलित सिक्का कार्षापण अथवा कहापण कहलता था। परन्तु इसका मूल्यवान क्या था कर्षापण चाॅंदी या ताॅंबे का सिक्का था यह निश्चित बताना कठिन है। जातक अटठ्कथा के अनुसार एक कहापण (कर्षापण) 20 मासे का होता था बुुद्धघोष का कहना है कि कर्षापण चाॅंदी का सिक्का होता था।
‘रजत वुच्चति कहापणो’
जातको से यह प्रतीत होता है कर्षापण चाॅंदी या ताॅंबे का सिक्का रहा होगा तथा कर्षापणो से प्रायः अनेक वस्तुओं की कीमत तय होती थी। उदाहरणार्थ ‘गामणीचण्ड’ जातक से पता चलता है कि एक जोड़ी बैल की कीमत 24 कर्षापण थी। (19) तथा एक गघे का मूल्य प्रायः 8 कर्षापण होती थी (20) कुण्डक कुच्छि जातक में वर्णन मिलता है कि अच्छी जाति के घोड़े की कीमत प्रायः एक हजार के 6 हजार कर्षापण तक होती थी। (21) महावेस्सन्तर जातक (22) में काशी के बहुमूल्य वस्त्रों की कीमत एक लाख कर्षापण बतायी है। अच्दी नस्ल के कुत्ते का मूल्य एक कर्षापण था। कण्ह जातक में काशी के व्यापारी ने 500 गाडि़यों का मरूस्थल पार करने के लिए प्रति वैल दो कर्षापण दिये तथा अर्घमासक या मासक एक दैनिक मजदूर की मजदूरी होती थी। (23)
इस प्रकार विनिमय के अन्तर्गत वस्तु विनिमय प्रणाली और ‘क्रय-विक्रय’ प्रणाली मान्य सिद्धान्त के रूप में जातक साहित्य में वर्णित है। इस काम में मुद्रा का प्रचुर प्रचलन था जिसमें कर्षापण प्रमुख मुद्रा थी। इसके अतिरिकत अर्घपाद, निस्क, सुवर्ण हिरण्य मासक काकिणी इत्यादि का भी वर्णन मिलता है। इस प्रकार मौद्रिक स्थिति जातक कालीन अर्थव्यवस्था को मजबूत आधार स्थापित कर व्यापार और वाणिज्य को गतिशील बनाती है।




सहायक ग्रन्थ

1. प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास - डा0 विमल चन्द्र पाडेय
2. पालिसाहित्य का इतिहास - डा0 भारत सिंह उपाध्याय
3. प्राचीन पूर्वोत्तर भारत - डा0 प्रभा त्रिपाठी
4. पालिजातक एक सांस्कृतिक अध्ययन - डा0 कृष्ण कुमारी श्रीवास्तव
5. प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास - डा0 जयशंकर मिश्र
6. जातक कालीन भारतीय संस्कृति - पं0 मोहन लाल महतोवियोगी
7. पालिनिकायों में प्राचीन भारत की - डा0 प्रभास चन्द्र मिश्र
सामाजिक एवं आर्थिक संस्थायें
8. जातक का हिन्दी अनुवाद खण्ड - भदन्त आनन्द कौशलायन
एक से छः तक